Sec 3 of Indian Evidence Act

Sec 3 of Indian Evidence Act निर्वचन खंड का उपबंध करती है | इस धारा में उन शब्दों को परिभाषित किया गया है, जिनका उपयोग इस अधिनियम में किया गया है | जो की निम्नवत है :-

निर्वचन खण्ड :- {Sec 3 of Indian Evidence Act}

न्यायालय

“न्यायालय” शब्द के अंतर्गत सभी न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट तथा मध्यस्थों के सिवाय साक्ष्य लेने के लिए बेध रूप से प्राधिकृत सभी व्यक्ति आते है |

तथ्य 

Sec 3 of Indian Evidence Act तथ्य शब्द को परिभाषित करती है |

“तथ्य से अभिप्रेरित है और उसके अंतर्गत आते हैं:-

  1. ऐसी कोई वस्तु, वस्तुओं की अवस्था या वस्तुओं का सम्बन्ध जो इन्द्रियों द्वारा बोधगम्य हो ;
  2. कोई मानसिक दशा जिसका भान किसी व्यक्ति को हो |”

अतः उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है की तथ्य शब्द के अंतर्गत केवल भौतिक तथ्य ही सम्मिलित नही हैं बल्कि इसके अंतर्गत किसी व्यक्ति के मस्तिष्क की स्थिति या दशा भी शामिल है | जैसे कि :- सद्भाव या असद्भाव, आशय, या उपेक्षा का अस्तित्व या अनस्तित्व शामिल है |
तथ्य की परिभाषा को समझने के लिए उसकी परिभाषा के साथ संलग्न दृष्टांत का सन्दर्भ लिया जा सकता है |

दृष्टांत

  A.      यह कि अमुक स्थान में अमुक क्रम से अमुक पदार्थ व्यवस्थित है, एक तथ्य है ;
        B.       यह कि किसी मनुष्य ने कुछ सुना या देखा, एक तथ्य है ;
        C.      यह कि मनुष्य ने अमुक शब्द  कहे, एक तथ्य है ;
         D.     यह कि मनुष्य अमुक राय रखता है, अमुक आशय रखता है, सद्भावपूर्वक या कपटपूर्वक कार्य करता है, या किसी विशिष्ट शब्द को विशिष्ट भाव में प्रयोग करता है, या उसे किसी विशिष्ट संवेदना का भान है, या किसी विशिष्ट समय में था, एक तथ्य है ;
      E.      यह कि किसी मनुष्य की अमुक ख्याति है, एक तथ्य है | 

सुसंगत तथ्य

साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 सुसंगत तथ्य को निम्नतः परिभाषित करती है :-

“एक तथ्य दुसरे तथ्य से सुसंगत तब कहा जाता है, जबकि तथ्यों की सुसंगति से सम्बंधित इस अधिनियम में निर्दिष्ट प्रकारों में से किसी भी प्रकार से वह तथ्य उस दुसरे तथ्य से संसक्त{जुड़ा हुआ} हो |”

Sec 3 of Indian Evidence Act

यह परिभाषा एक स्पष्टीकरण की प्रकृति की अधिक है जो की या स्पष्ट करती है की एक तथ्य दुसरे तथ्य से तभी सुसंगत होता है जब वह साक्ष्य अधिनियम की धारा 6 से 55 तक उपबंधो के अंतर्गत आता हो |

वास्तव में सुसंगत तथ्य वे तथ्य होते है जो स्वयं अकेले या अन्य तथ्यों के साथ मिलकर किसी विवाद्यक तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व के सम्बन्ध में कोई युक्तियुक्त अनुमान इंगित करने में सक्षम है | ऐसे तथ्य साक्ष्य तथ्य {Factum Probans} कहलाते हैं | 

दृष्टांत

B  हत्या का A अभियुक्त है | उसके आचरण  निम्नलिखित तथ्य सुसंगत हो सकते है :-

  1. यह की A के पास B की हत्या का हेतु तथा अवसर था | 
  2. यह की A ने चाकू या पिस्तौल आदि का क्रय करके B की हत्या करने  तैयारी की थी | 
  3. यह की हत्या के पश्चात A को खून लगे चाकू को हाथ में लिए भागते हुए देखा गया |   

विवाद्यक तथ्य

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 विवाद्यक तथ्य को परिभाषित करती है |    

“विवाद्यक तथ्य से अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत आता है :-
      1.      ऐसा कोई तथ्य जिस अकेले से ही या अन्य तथ्यों के संसर्ग में;
      2.      किसी ऐसे अधिकार, दायित्व, या निर्योग्यता के;
      3.      जिसका किसी वाद या कार्यवाही में प्रख्यान या प्रत्याख्यान किया गया है:
      4.      अस्तित्व, अनस्तित्व, प्रकृति या विस्तार की उत्पति अवश्यमेव होती है |”

वास्तव में विवाद्यक तथ्य ऐसे तथ्य होते है जिन पर पक्षकारो के मध्य विवाद होता है और जिन पर पक्षकारो के अधिकार, दायित्व या निर्योग्यता निर्भर होती है | ऐसे तथ्यों के निष्कर्ष पर ही वाद का निर्णय आधारित होता है | ऐसे तथ्य मुख्य तथ्य {factum probandum} कहलाते हैं | जिनका निर्धारण सारवान विधि तथा पक्षकारो के अभिवचनो पर निर्भर करता है |

दुसरे शब्दों में कहे तो धारा 3 में दी गयी परिभाषा के अनुसार विवाद्यक तथ्य ऐसे तथ्य होते हैं, जिन पर मतभेद हो और जिन पर पक्षकारो के अधिकार तथा दायित्व निर्भर करते हों |

किसी भी तथ्य को विवाद्यक तथ्य तब माना जाता है जब वह दो शर्ते पूरी करता हो | प्रथम, यह कि उस तथ्य के बारे में पक्षकारों के मध्य मतभेद हो, दूसरा यह की वह तथ्य इतना महत्व रखता हो की उसी पर पक्षकारो के दायित्व तथा अधिकार निर्भर करते हों |

इस परिभाषा के साथ एक स्पष्टीकरण संलग्न है | जो यह उपबंधित करता है कि जब कभी न्यायालय विवाद्यक तथ्य को सिविल प्रक्रिया से सम्बंधित किसी तत्समय प्रवृत विधि के उपबंधों के अधीन अभिलिखित करता है, तब ऐसे विवाद्यक के उत्तर में  जिस तथ्य का प्रख्यान या प्रत्याख्यान किया जाता है, वह विवाद्यक तथ्य है |

दृष्टांत

B की हत्या का A अभियुक्त है |
उसके विचरण में निम्नलिखित तथ्य विवाध्यक तथ्य हो सकते है :-
     1.      यह कि A ने B की मृत्यु कारित की,
     2.      यह कि A का आशय B की मृत्यु कारित करने का था,
     3.      यह की B की मृत्यु कारित करने का कार्य करते समय A चित्तविकृत्ति के कारण उस कार्य की प्रकृति को जानने में असमर्थ था |

साक्ष्य

“साक्ष्य” शब्द से अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत आते हैं:-

1. वे सभी कथन (बयान) जिनको न्यायालय साक्षियों द्वारा अपने सामने करने की अनुमति देता है या अपेक्षा करता है तथा ऐसे कथन न्यायालय के समक्ष जांचाधीन विषयों से सम्बंधित होते हैं और जब साक्षियों द्वारा ऐसे कथन किये जाते है तो वह मौखिक साक्ष्य कहलाते हैं ;

2.न्यायालय के निरीक्षण के लिय पेश किये गये सभी दस्तावेज, जिनमें इलेक्ट्रोनिक अभिलेख शामिल हैं,ऐसे दस्तावेजें दस्तावेजी साक्ष्य कहलाते हैं |

दस्तावेज

“दस्तावेज” से ऐसा कोई विषय अभिप्रेत है जिसको किसी पदार्थ पर अक्षरों , अंको या चिन्हों के साधन द्वारा या उनमे से एक से अधिक साधनो द्वारा अभिव्यक्त या वर्णित किया गया है जो उस विषयों के अभिलेखन के प्रयोजन से उपयोग किये जाने को आशयित हो या उपयोग किया जा सके |

द्रष्टान्त

लेख दस्तावेज है;

मुद्रित या फोटोचित्रित शब्द दस्तावेज है;

मानचित्र या रेखांक दस्तावेज है;

धातुपट्ट या शिला पर उत्कीर्ण लेख दस्तावेज है ;

उपहासाकन दस्तावेज है |

साबित

” कोई तथ्य साबित हुआ कहा जाता है जब न्यायालय अपने विषयो पर विचार करने के पश्चात

(1) या तो यह विश्वास करे की उस तथ्य का अस्तित्व है या

(2) इसके अस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य समझे की उस विशिष्ट मामले की परिस्थितियों में किसी प्रज्ञावान व्यक्ति को इस अनुमान पर कार्य करना चाहिए की उस तथ्य का अस्तित्व है |”

दुसरे शब्दों में न्यायलय किसी तथ्य को साबित हुआ तब मानेगा जब बह अपने समक्ष आये हुए सभी विषयो पर विचार करने के पश्चात

(1) न्यायालय या तो ये विश्वास करे की उस तथ्य का अस्तित्व है या

(2) न्यायालय उस तथ्य के अस्तित्व को अधिसम्भाव्य {अर्थात जिसकी सम्भावना बहुत अधिक हो} समझे की न्यायालय की जगह अगर कोई सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी होता तो उस तथ्य का अस्तित्व मानता |

नासाबित

” कोई तथ्य नासाबित हुआ कहा जाता है जब न्यायालय अपने समक्ष विषयो पर विचार करने के पश्चात –

(1) या तो यह विश्वास करे की उसका अस्तित्व नही है या

(2) उसके अनस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य समझे की उस विशिष्ट मामले की परिस्थितियों में किसी प्रज्ञावान व्यक्ति को इस अनुमान पर कार्य करना चाहिए की उस तथ्य का अस्तित्व नही है |

दुसरे शब्दो में कहे तो न्यायालय किसी तथ्य को नासाबित हुआ तब मानेगा जब वह अपने समक्ष आये हुए सभी विषयों पर विचार करने के पश्चात

(1) या तो यह विश्वाश करे की उस तथ्य का अनस्तित्व है या

(2) उस तथ्य के अनस्तित्व को इतना अधिसम्भाव्य,समझे की न्यायालय की जगह अगर कोई सामान्य समझ वाला व्यक्ति या सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति भी होता तो उस तथ्य का अस्तित्व नही मानता |

साबित नही हुआ :-

” कोई तथ्य साबित नही हुआ कहा जाता है जब वह न तो साबित किया गया हो और न नासाबित |”

दूसके शब्दों में कोई तथ्य साबित नही हुआ तब माना जाता है जब न्यायालय के समक्ष ऐस तथ्य को –

(1) न तो साबित किया जाता है और

(2) न ही नासाबित किया जाता है |

भारत

“भारत” से जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय भारत का राज्यक्षेत्र अभिप्रेत है |

मुख्य परीक्षा का प्रश्न

प्रश्न = किसी तथ्य को साबित करने के लिए सबूत के स्तर पर प्रकाश डालिए ?

उत्तर = न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये विषयों के आधार पर किसी तथ्य को साबित या नासाबित माना जाता है | यहाँ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत विषयों से तात्पर्य उन समस्त सामिग्रियों से है जिन्हें न्यायालय के समक्ष कार्यवाही के दौरान साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है और जिन्हें निर्णय का आधार बनाया जा सकता है |

“साबित या नासाबित” पद की परिभाषा से यह स्पष्ट है की जब न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत विषयों के आधार पर न्यायालय को यह विश्वास हो जाए की किसी तथ्य का अस्तित्व हैं तो उस तथ्य को साबित अथवा यह विश्वास हो जाए की किसी तथ्य का अस्तित्व नही है तो उस तथ्य को नासाबित माना जायेगा | यहाँ “न्यायालय को विश्वाश होने ” से तात्पर्य प्रत्यक्ष साक्ष्य के आधार पर विश्वास हो जाने से है |

परन्तु प्रत्येक मामले में यह सम्भव नही है की प्रश्नगत तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व का प्रत्यक्ष साक्ष्य दे दिया जाए | अतः साक्ष्य अधिनियम के निर्माताओ ने सबूत के स्तर को हल्का करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य के बजाये मात्र इतने ही विषयों को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना पर्याप्त माना है जितने के आधार पर उन परिस्थितियों में एक सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति प्रश्नगत तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व की अधिसंभाव्यता का अनुमान करता है, अर्थात किसी पक्षकार को इतना सबूत देने की आवश्यकता नही है की न्यायालय के रूप में कार्य कर रहा व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से प्रश्नगत तथ्य के सम्बन्ध में कोई अनुमान लगा सके |

बल्कि इतना ही पर्याप्त है की उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये सबूत के आधार पर सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति उस तथ्य के सम्बन्ध में कोई अनुमान लगा सके |

अतः साबित या नासाबित की परिभाषा से स्पष्ट है की विवाद्यक तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व को मानने के लिए किसी विशिष्ट या तकनीकी सबूत की आवश्यकता नही है |

सेविका पेरूमल बनाम तमिलनाडु राज्य 1951

अभिनिर्धारित :- इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह स्पस्ट किया गया की सबूत की परख न केवल विश्वास के आधार पर बल्कि उन संभावनाओ के आधार पर भी की जा सकती है जिनके आधार पर एक सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति किसी तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व के बारे में अपनी राय बना सकता है |

इस प्रकार हम कह सकते है की साबित एवंम नासाबित की परिभाषा संभावनाओं के इर्द-गिर्द घुमती है |

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