HINDU LAW | हिन्दू विधि के स्रोत

HINDU LAW : Simplified हिन्दू विधि के स्रोत {2 स्रोत}

हिन्दू लॉ के स्रोतों के बारे में hindu law in hindi न्यायिक परीक्षाओं के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी

संसार सभी विधि व्यवस्थाओं में हिन्दू विधि (hindu law) सबसे पुरानी है | यदि वेदों का काल हम 4000 से 1000 बी.सी. माने तो हिन्दू विधि 6000 साल पुरानी है | जीवन की भांति ही विधि भी कभी स्थिर नही रहती है इसी पराक्र हिन्दू विधि ने भी बहुत उतार चढ़ाव देखें है लेकिन सभी उतर चढ़ावों के बाबजूद भी हिन्दू विधि सदैव प्रवाहित रही है |

हिन्दू विधि के श्रेष्ठ होने का सबसे बड़ा कारन यह है की इसने हमेशा बदलाव को स्वीकार किया है जिसके कारन बदली हुई समाज व्यवस्था के साथ साथ इसका प्रवाह भी बदलता रहा है | हिंदू विधि की बदलाव की धारा को समझने का सबसे तरीका है उसके स्रोतों का अध्ययन | हिन्दू विधि hindu law kya hai के स्रोत निम्नवत है :-

  1. प्राचीन या मूल स्रोत;
  2. आधुनिक या द्वितीयक स्रोत |

HINDU VIDHI के प्राचीन या मूल स्रोत :-

प्राचीन या मूल स्रोतों के अंतर्गत आते है :-

  • श्रुति;
  • स्मृति;
  • टीका एवंम निबन्ध;
  • रूढ़ियाँ |

श्रुति :-

श्रुति शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है “श्रवण किया हुआ” | हिन्दू विधि दैवी विधि कहलाती है | मान्यता यह रही है हमारे श्रीमुनियों का ज्ञान इस सीमा तक पहुँच गया था की उन्होंने ईश्वर से सीधा संपर्क स्थापित कर लिया था और उन्होंने जो ज्ञान ईश्वर से प्राप्त किया उस ज्ञान को उन्होंने श्रुति या वेदों के माध्यम से हमे दिया अर्थात आसन शब्दों में कहे तो श्रीमुनियों द्वारा जो ज्ञान ईश्वर से सुना गया उसको उन्होंने आम लोगो तक पहुँचाया उसी को हम वेद या श्रुति कहते है |

श्रुति का ही दूसरा नाम वेद है | वेदों को ईश्वर की वाणी कहा जाता है और वेदों से जुडी है वेदांगनायें जो की भिन्न भिन्न प्रकार के अनुष्ठानों, कर्मकांडों और यज्ञों का वर्णन करती है | वेदों की संख्यां चार है :-

HINDU LAW : Simplified हिन्दू विधि के स्रोत {2 स्रोत}
  • ऋग्वेद;
  • यजुर्वेद;
  • सामवेद;
  • अथर्ववेद |

वैदिक दर्शन के अनुसार आत्मा अमर है परन्तु आत्मा का निवास स्थान नश्वर है जो की है इंसान का पार्थिव शारीर | जब तक मोक्ष की प्राप्ति नही होती है जब तक इंसान बार बार जन्म लेता है |

इस जन्म में और हमारे आने वाले वालो में जन्मो में हमारा अस्तित्व, हमारे सुख-दुःख,क्लेश शांति हमारे कर्मो द्वारा निर्धारित होती है | ये वो कर्म होते है जो हमने पूर्व जन्म में किये है और अपने इस जन्म में कर रहे है |

अच्छे कर्मो का फल अच्छा होता है बुरे कर्मो का फल बुरा होता है| यज्ञ, अनुष्ठान आदि करके हम अपनी आत्मा को इस आवागमन के बंधन से मुक्त कर सकते है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकते है |

हिस्ट्री और धर्मशास्त्र के रचियेता महामहोपाध्याय डॉक्टर काणे के अनुसार वेद धर्म पर व्यवस्थित ढंग से लिखे गये ग्रन्थ नही है, विधान के कुछ नियम इधर उधर बिखरे पड़े है | यदि हम धर्म का व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप देख्नाचाह्तेब हैतो हमे स्म्रतियों का अवलोकन करना होगा |

स्मृति :-

स्मृति शब्द का शाब्दिक अर्थ है जो कुछ भी स्मरण में है | हमारे ऋषि मुनियों ने देवी वाणी का संकलन किया और इस दैवीय वाली का संकलन वेदों में किया, लेकिन फिर भी बहुत उनके स्मरण पटल पर रहा जिसका वेदों में संकलन नही किया गया | मान्यता यह है की ऋषि मुनियों के स्मरण पर आधारित है |

स्मृतियों के साथ विधि का क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित विकास के युग का प्रारम्भ हुआ | स्मृति युग भारतीय विधि का स्वर्ण युग है |

टीका और निबन्ध :-

स्मृतियों का विश्लेषण व उन्हें आत्मसात और सुव्यवस्थित रूप प्रदान करने कार्य टीकाकारों व निबंधकारो द्वारा किया गया | ऐसा इसलिए किया जाना जरुरी था क्योंकि स्मृतियों द्वारा दिए गये सिद्धांत कही कहीं तो स्पष्ट थे किन्तु कहीं अस्पष्ट किन्ही विषयों पर उनका नितान्त अभाव था |

यही नहीं एक स्मृति दुसरे से भिन्न थी और कभी कभी एक ही विषय पर विपरीत नियम प्रतिपादित करती थी | कभी कभी एक ही स्मृति में विरोधात्मक निर्णय थे |

अधिकांश टीकाकारो और निबंधकारों ने स्मृतियों की व्याख्या स्वतन्त्र रूप से की है | बहुत कम ऐसे है जिन्होंने रजा के संरक्षण में रहकर कार्य किया है | टीकाओं और निबंधो का युग लगभग 1 हज़ार वर्ष का युग है, 7वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक का |17वीं शताब्दी में नंद्पंदित द्वारा रचित वैजयन्ती अंतिम टीका है |

युग के प्रारम्भ में टीका लिखने का चलन था किन्तु 12वीं शताब्दी से निबन्ध लिखने का चलन जोर पकड़ गया | इसका तात्पर्य यह बिलकुल नही है की 12वीं शताब्दी से पहले निबन्ध नही लिखे जाते थे या 12वीं शताब्दी के बाद टीका नही लिखे गये | यह भी हुआ है की टीकाकार ने लिखी तो टीका है किन्तु निबन्ध की शैली में |

टीकाकार और निबन्धकार यह मानते है की स्मृतियां एक विधि व्यवस्था की स्थापना करती है जिनका एक भाग दुसरे भाग का पूरक है, यदि हम उन्हें समुचित रूप से समझे तो उनका एक दुसरे से तालमेल बैठता है |

टीकाकारों और निबंधकारों ने स्मृतियों की व्याख्या करते-करते अपने तर्क और अपने काल की प्रथाओं और रुढियों के आधार पर स्मृतियों में निर्धारित नियमों को उपांतरित किया है और नए नियमो का विकास किया है |

आत्माराम बनाम बाजीराव, 1935 पी.सी.

अभिनिर्धारित :- प्रीवी कौंसिल ने यह मत व्यक्त किया की स्मृतियों में निर्धारित विधि के नियमों को रूढ़ि और सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप बनाने के लिए निबंधकारों और टीकाकारों ने व्याख्या करने के नाम पर उन्हें परिवर्तित कर दिया है और आज स्थिति यह है की यदि स्मृतियों, टीकाओं और निबंधो में निर्धरित्विधि के नियम एक दुसरे के विपरीत है तो टीकाओं और निबंधों को प्रधानता दी जाती है |

हमे अनेक टीकाओं और निबंधों की प्रतिलियाँ उपलब्ध है | मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति पर सबसे अधिक टीकाएँ और निबन्ध लिखे गये है |

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रूढ़ियाँ :-

मानव ने जब सामूहिक जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया तो उसे यह आवश्यक प्रतीत हुआ ली सामूहिक जीवन शांतिपूर्वक रहे और मानव-मानव के बीच संघर्ष न हो, इसी भावना से मानव-आचरण के नियमों का जन्म हुआ | मानव अनुभव और आवश्यकता द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचा की किन मानव आचरणों के नियमो का पालन करना सामूहिक जीवन के अनुकूल होगा, ऐसे नियम विकसित होते गये और मानव समाज के डर से ऐसे नियमो को मानने लगा | विकास के इस युग तक पहुँचने पर इन मानव आचरण के नियमो को प्रथा का नाम दिया गया | प्रथाएं कुछ पीढ़ियों तक अविच्छिन्न रूप से मानी जाने पर रूढ़ियां कहलाने लगी |

रानी लक्ष्मी बनाम शिवकली, 1811

अभिनिर्धारित :- वर्तमान हिन्दू विधि के अंतर्गत रूढ़ियों को तभी मान्यता प्राप्त होती है जबकि वे प्राचीन, ज्ञात, निरंतर और निश्चित हों, वे अनैतिक, विधान के विरुद्ध और युक्तियुक्त न हों | यह भी आवश्यक है वह साक्ष्य द्वारा सिद्ध हो गई हो |

HINDU LAWके आधुनिक या द्वितीयक स्रोत:-

hindu law keआधुनिक या द्वितीयक स्रोतों के अंतर्गत आते है :-

  • साम्या, न्यायोर और सुआत्मा;
  • विधान;
  • पूर्व-निर्णय;

साम्या, न्यायोर और सुआत्मा:-

प्राचीन भारत में साम्या, न्याय और सुआत्मा के सिद्धांत का स्वरूप “न्याय और युक्ति” के सिद्धांत में मिलता है | वृहस्पति के अनुसार कोई भी निर्णय केवल शास्त्र के नियमों के अनुसार देना ही पर्याप्त नही है क्योंकि जो निर्णय युक्तिहीन है, उससे न्याय का हनन होता है याज्ञवल्क्य के अनुसार यदि किसी विषय पर विरोधाभास नियम हो तो उस विषय पर निर्णय युक्ति द्वारा देना चाहिए | इससे यह प्रतीत होता है की न्याय और युक्ति के सिद्धांत का प्रयोग न केवल विधि की अपूर्णता को पूरा करने हेतु किया जाता है बल्कि न्याय और युक्ति के प्रतिकूल शास्त्रीय विधि के विधि के नियमो के खंडन हेतु भी किया जाता है |

विधान :-

विधान hindu law का आधुनिक स्रोत है | अंग्रेजी शासन काल में भारतियों की वैक्तिक विधि में कोई हस्तक्षेप नही किया गया | विधान द्वारा hindu law में हस्तक्षेप तभी किया गया जब या तो वे अंग्रेजी शासन की नीतियों के अनुकूल थे या हिन्दूओं ने स्वयं उनकी मांग की |

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