IPC,1860 | अपराध की परिभाषा, अर्थ,आवश्यक तत्व

IPC,1860 | अपराध की परिभाषा, अर्थ,आवश्यक तत्व

अपराध यह एक वो शब्द है जो सुनने मैं तो बहुत छोटा है किन्तु बहुत ही खतरनाक है | इस शब्द के कारण समाज दूषित तो होता ही है इसके साथ साथ दो जिंदगियां और उनके परिवार पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते है अर्थात अपराध करने वाली व्यक्ति की ज़िन्दगी और उसका परिवार तथा जिसके साथ वह अपराध किया गया है उसकी ज़िन्दगी और उसका परिवार | सबसे महत्पूर्ण बात यह है की अपराध होते क्यों है है समाज में जबकि प्रत्येक व्यक्ति जानता है की अपराध एक बहुत ही निंदनीय कृत्य है |

अपराध की परिभाषा, अर्थ :-

दोस्तों अपराध को भारतीय दण्ड संहिता और दण्ड प्रक्रिया संहिता दोनों में ही परिभाषित किया गया है | हम दोनों ही संहिताओं में परिभाषित परिभाषाओं को पढेंगे |

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 40( SEC. 40 OF IPC) :- 

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 40 अपराध शब्द को परिभाषित करती है | इसके अनुसार, ” कोई बात जो इस संहिता द्वारा दंडनीय है अपराध है |”

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(ढ) :- 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(ढ) के अनुसार , ”  अपराध से कोई ऐसा कार्य या लोप अभिप्रेत है जो तत्समय प्रवृत किसी विधि द्वारा दंडनीय बना दिया गया है और इसके अंतर्गत कोई ऐसा कार्य भी आता है जिसके बारे में पशु अतिचार अधिनियम, 1871 की धारा 20 के अधीन परिवाद किया जा सकता है |”

ये दोनों ही परिभाषाएं अपराध की परिभाषा न होकर मात्र एक स्पष्टीकरण है जो केवल यह स्पष्ट करती है की संहिता द्वारा दंडनीय बनाये गये कृत्य अपराध है अतः अपराध शब्द को समझने के लिए हमे कुछ विधिशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाओं को समझना होगा जो की निम्नवत है :-

  • अपराध वह है जिसे समाज के लोग घोर निंदा की द्रष्टि से देखते है  …………..शमशुल हुदा 
  • ऐसा अपकार जिसकी पैरवी राज्य या संप्रभु करे अपराध है और जिसकी पैरवी पीड़ित व्यक्ति करे वह सिविल अपकार है.…………………ऑस्टिन 
  • अपराध एक ऐसा कृत्य है जो की विधि द्वरा निषिद्ध है तथा समाज के नैतिक मूल्यों के प्रतिकूल है ……………………….स्टेफीन 
  • सम्पुर्ण समुदाय के अधिकारों और कर्तव्यों के उल्लंघन में किया गया कार्य अपराध है ……..ब्लैकस्टोन 
  • सम्पुर्ण समुदाय के अधिकारों के उल्लंघन में किया गया कार्य अपराध है………………..स्टीफेन 
  • सार्वजानिक या लोक विधि के विरोध में किया गया कार्य अपराध है …….ब्लैकस्टोन 
  • अपराध वह अपकार है जिसके लिए शास्ति दण्ड है तथा जो सम्राट द्वारा क्षम्य है ………..कैनी 
  • ऐसे कृत्य जिनको विधि ने अच्छे या बुरे कारणों से निषिद्ध कर दिया है अपराध है ……….बेन्थैम 
  • कोई भी विधिशास्त्री अपराध की परिभाषा ठीक तरीके से नही दे सकता ……….रसेल 

                                 इन सभी परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात हम  अपनी समझ  के लिए यह कह सकते है की, “अपराध एक अवैधानिक कृत्य है | कोई अनैतिक या समाज विरोधी या धर्म विरोधी कृत्य तब तक अपराध नही हो सकता जब तक वह अवैधानिक न हो |”
                 यह सभी विधिशास्त्रियों की परिभाषाएं हमारी न्यायिक परीक्षाओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि न्यायिक परीक्षाओं की प्रारम्भिक और कभी कभी मुख्य परीक्षाओं में इनसे सम्बंधित प्रश्न पूछ लिए जाते है |

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अपराध के आवश्यक तत्व:-

अपराध के निम्नलिखित 4 आवश्यक तत्व होते है :-

1. मानव;

2. दुराशय; 

3. कृत्य;

4. क्षति |

1. मानव :-

किसी कृत्य से अपराध तब तक गठित नही होता है जब तक की ऐसा कृत्य मानव द्वारा न किया गया हो | “मानव” शब्द को संहिता में परिभाषित नही किया गया है | किन्तु संहिता की धारा 11 व्यक्ति शब्द को परिभाषित करती है | परिभाषा निम्नवत है :-

IPC,1860 | अपराध की परिभाषा, अर्थ,आवश्यक तत्व

कोई भी कंपनी या संगम या व्यक्ति निकाय चाहे निगमित हो या नही व्यक्ति शब्द के अंतर्गत आता है | {धारा 11}

अतः परिभाषा से हमे यह साफ़ समझ आता है की कम्पनी, संगम या व्यक्ति निकाय का भी आपराधिक दायित्व निर्मित हो सकता है|

2. दुराशय:-

दुराशय या दूषित मनःस्थिति अपराध का द्वितीय आवश्यक तत्व है | यह अपराध की निंदनीय मनःस्थिति को सूचित करता है जिसमे कृत्य की प्रकृति तथा उसके परिणाम का पूर्ण ज्ञान रहता है |

आंग्ल स्थिति :-

दुराशय का सिद्धांत यह कहता है की किसी कृत्य से तब तक अपराध गठित नही होता है जब तक की वह आपराधिक मनःस्थिति से न किया गया हो | आपराधिक विधि का यह मुख्य सिद्धांत लेटिन सूक्ति ACTUS NON FACIT, REUM NISI MENS SIT REA  पर आधारित है | इस सूक्ति से एक दूसरी सूक्ति निकलती है |

जो की है ACTUS ME INVITO FACTUS NON EST MENS ACTUS अर्थात मेरे द्वारा मेरी इच्छा के विरुद्ध किया गया कार्य मेरा कार्य नही है | अतः अपराध गठित करने के लिए आशय एवंम कार्य दोनों का संगामी होना आवश्यक है |

इंग्लैंड में दुराशय के सिद्धांत को कॉमन लॉ अपराधो के मामलो में बिना किसी विरोध के लागु किया जाता था परन्तु सांविधिक अपराधो के मामलो में इस सिद्धांत के लागु होने को लेकर 1947 तक अनिश्चितता बनी रही | इस अनिश्चितता को निम्न वादों के माध्यम से समझा जा सकता है |

आर बनाम प्रिंस, 1875

मामले के तथ्य :- इस प्रकरण में प्रिंस 16 वर्ष से कम आयु की एक अविवाहित लडको को उसके पिता की इच्छा के विरुद्ध उसकी संरक्षता से ले गया था | प्रिंस ने अपने बचाव में यह तर्क दिया की लड़की ने अपनी आयु 18 वर्ष बताई और उसकी शारीरिक संरचना को देखने पर भी यही लगता था की उसकी आयु 18 वर्ष से आशिक ही होगी | अतः उसका कोई दुराशय नही था |

अभिनिर्धारित :- न्यायलय ने दुराशय के सिद्धांत को लागु करने से इंकार करते हुए प्रिंस को दोषसिद्ध किया | न्यायलय के मतानुसार प्रिंस ने विधि द्वारा निषिद्ध कृत्य किया था तथा वह केवल विधिक अपकार ही नहीं बलकी नैतिक अपकार भी था |

क्वीन बनाम टाल्सन, 1889

मामले के तथ्य :- श्री एवंम श्रीमती टाल्सन ने 1880 में विवाह किया था | मिस्टर टोलसन जो की एक जहाज पर सेवा रत थे 1882 में अचानक गायब हो गये | उसके पश्चात् मालूम पड़ता है की मिस्टर टाल्सन की म्रत्यु उसी जहाज पर हो गई है | मिसेज टाल्सन ने अपने आपको विधवा मानते हुए 1887 में पुनः विवाह कर लिया और और दुसरे पति से प्रथम विवाह के बारे में कुछ नही छिपाया | इसी बीच मिस्टर टाल्सन पुनः प्रकट हुए और उन्होंने मिसेज टाल्सन के विरुद्ध द्वि विवाह का अभियोजन संस्थित किया | 

अभिनिर्धारित :- न्यायलय ने दुराशय के सिद्धांत को लागु करते हुए श्रीमती टाल्सन को दोषमुक्त कर दिया | न्यायालय के मतानुसार द्वि विवाह के अपराध के मामलो में दुसरे विवाह के समय प्रथम पति की म्रत्यु के सम्बन्ध में सद्भावपूर्ण विश्वास एक अच्छा बचाव है | 

ब्रेंड बनाम बुड, 1947

अभिनिर्धारित :- इस प्रकरण में दुराशय के सिद्धांत का पुनःजन्म हुआ | न्यायालय द्वारा अवधारित किया की प्रत्येक अपराध के मामले  में दुराशय एक आवश्यक तत्व है, चाहे कॉमन लॉ अपराध हो या सांविधिक अपराध |

भारतीय स्थिति :-

सामान्यतः दुराशय का सिद्धांत भारत में लागु नही होता है क्योंकि भारतीय दंड संहिता में दुराशय शब्द को परिभाषित ही नही किया गया है | परन्तु यह माना जाता है की दुराशय के सिद्धांत का प्रवर्तन भारतीय दंड संहिता में निम्न दो रूपों में हुआ है :-

a. सकारात्मक रूप में;

b. नकारात्मक रूप में |

सकारात्मक रूप में :-  बेइमानीपूर्वक, कपटपूर्वक, स्वेच्छया आदि शब्दों का प्रयोग संहिता में अपराधो को परिभाषित करने में किया गया है जो की दुराशय के घोतक है |

नकारात्मक रूप में :- साधारण अपवादों से सम्बंधित संहिता का अध्याय 4 उन परिस्थितियों को इंगित करता है जिनमे दुराशय के अभाव की उपधारणा की जाती है | 

भारतीय न्यायालयों ने भी विभिन्न मामलो में दुराशय के सिद्धांत को लागु किया है | कुछ मामले निम्नवत है :-

श्रीनिवासमल बनाम किंग एम्परर, 1947 (प्रीवी काउंसिल)

मामले के तथ्य :- इस प्रकरण में एक पेट्रोल डीलर को पेट्रोल में मिलावट करने के लिए अभियोजित किया गया |

अभिनिर्धारित :- न्यायालय ने उसे इस आधार पर दोषमुक्त कर दिया की उसके ज्ञान के बिना उसके सेवको द्वारा पेट्रोल में अपमिश्रण किया गया था |

महाराष्ट्र राज्य बनाम एम. एच. जोर्ज, 1965 (एस.सी.)

मामले के तथ्य :- अभियुक्त को विधि द्वारा निषिद्ध मात्रा में सोना भारत लाने के लिए अभियोजित किया गया | अभियुक्त ने अपने बचाव में यह तर्क प्रस्तुत किया की उसे इस बात का ज्ञान नही था की वह निषिद्ध मात्रा में सोना भारत ला रहा था |

अभिनिर्धारित :- न्यायलय ने दुराशय के सिद्धांत को लागु करने से इंकार करते हुए अभियुक्त को दोषसिद्ध किया | न्यायलय के मतानुसार देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करने वाले अपराधो के सम्बन्ध में दुराशय के सिद्धांत को लागु नही किया जा सकता |

नाथू लाल बनाम मध्यप्रदेश राज्य, 1966 (एस.सी.)

मामले के तथ्य :- अभियुक्त एक अनाज व्यापारी था | उसने निश्चित मात्रा में अनाज रखने के लिए लाइसेंस प्राप्त करने हेतु सक्षम अधिकारी के समक्ष आवेदन किया | इस सद्भावपूर्ण विश्वास पर की उसे लाइसेंस प्राप्त हो जायेगा उसने भारी मात्रा में अनाज क्रय किया परन्तु उसे लाइसेंस प्राप्त नही हुआ | व्यापारी को अधिक मात्रा में अनाज रखने के लिए अभियोजित किया |

अभिनिर्धारित:- दुराशय के अभाव के आधार पर न्यायलय ने उसे दोषमुक्त कर दिया |

3. कृत्य:-

किसी अपराध का तृतीय आवश्यक तत्व यह है की किसी व्यक्ति द्वारा अपने दुराशय के अनुसरण में विधि द्वारा निषिद्ध कोई कृत्य या लोप कारीत किया गया हो | धारा 32 भारतीय दंड संहिता के अनुसार अवैध कृत्य के अंतर्गत लोप भी शामिल है |{जब तक सन्दर्भ से तत्प्रतिकुल कोई आशय प्रतीत न हो }| धारा 33 भारतीय दंड संहिता यह उपबंधित करती है की कृत्य शब्द में केवल एक कृत्य ही सम्मिलित नही है बल्कि इसके अंतर्गत अनेक कृत्य सम्मिलित है जो एक संव्यवहार को गठित करते है | इसी प्रकार लोप शब्द भी अनेक लोपो का घोतक है |

4. क्षति:-

किसी अपराध का चौथा आवश्यक तत्व यह है की किसी व्यक्ति के कृत्य से पीड़ित व्यक्ति को क्षति कारीत हुई हो |
         क्षति शब्द को भारतीय दंड संहिता की धारा 44 के अधीन इस प्रकार परिभषित किया गया है :- क्षति शब्द किसी प्रकार की अपहानि का घोतक है जो किसी व्यक्ति के शरीर, मन, ख्याति या सम्पति को अवैध रूप से कारित हुई हो |

अपूर्ण अपराध:-

अपूर्ण अपराध वे अपराध होते है जिनमे अपराध के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान नही होते है अर्थात ऐसे अपराध जिनमे क्षति कारीत नही होती है अपूर्ण अपराध कहलाते है |  केवल 3 प्रकार प्रकार के अपूर्ण अपराध होते है जो की निम्नवत है :-

a. आपराधिक प्रयत्न

 b. आपराधिक षड्यंत्र

c. दुष्प्रेरण |

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