Important Case Laws on Article 20 of the Indian Constitution

आज हम जानेंगें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के कुछ महत्वपूर्ण केस लॉ(Important Case Laws on Article 20 of the Indian Constitution) जो की न्यायिक परीक्षाओं(judicial examination) के छात्रों व वकालत करने वाले वकील भाइयों के लिए बहुत उपयोगी साबित होते है | अनुच्छेद 20 अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण प्रदान करता है |

अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण :- (अनुच्छेद 20)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20 को (3) खंडो में विभाजित किया गया है | यह तीनो ही खंड बहुत ही ज्यादा ही महत्वपूर्ण है | जो व्यक्ति न्यायिक परीक्षाओं या किसी अन्य परीक्षाओं की तैयारी कर रहे है यह तीनो ही खंड उनके लिए पढना और समझना बहुत ही आवश्यक है | अनुच्छेद 20 के (3) खंड निम्नवत है :-

1.  कार्योतर विधियों से संरक्षण {अनुच्छेद 20(1)}

2.   दोहरे परिसंकट से संरक्षण {अनुच्छेद 20(2)}

3.  आत्म-अभिसंशन के विरुद्ध संरक्षण {अनुच्छेद 20(3)}

Important Case Laws on Article 20 of the Indian Constitution

1.  कार्योतर विधियों से संरक्षण {अनुच्छेद 20(1)}

अनुच्छेद 20(1) के अनुसार, कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषसिद्ध नही ठहराया जायेगा जब तक की उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत विधि का अतिक्रमण नही किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नही होगा जो उस अपराध के किये जाने के समय प्रवृत विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी |

अनुच्छेद 20(1) पर आधारित केस लॉ:-

अनुच्छेद 20(1) पर आधारित केस लॉ
अनुच्छेद 20(1) पर आधारित केस लॉ

वेंकट रमण बनाम भारत संघ, 1964, (एस.सी.)
अभिनिर्धारित :- अनुच्छेद 20(1) कार्योतर विधियों के अधीन केवल दोषसिद्धि एवं दण्डित किये जाने का प्रतिषेध करता है नाकि किसी भूतलक्षी प्रक्रियात्मक विधि के अधीन विचरण किये जाने का (अर्थात विधानमंडल प्रक्रियात्मक विधि को भूतलक्षी प्रभाव de सकती है और प्रक्रियात्मक विधि पर अनुच्छेद 20(1) लागू नही होता है ) | इसके अतिरिक्त कार्य किये जाने के समय प्राधिकार रखने वाले न्यायालय से भिन्न न्यायालय द्वारा विचरण किया जाना भी इस अनुच्छेद के तहत असंवैधानिक नही होगा |

रतनलाल बनाम पंजाब राज्य, 1965 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- अनुच्छेद 20(1) किसी लाभदायी दांडिक विधि के भूतलक्षी प्रवर्तन का प्रतिषेध नही करता है| अतः अपराधी अधिक दंड का भोगी तो नही होगा किन्तु कम दंड का लाभार्थी होगा |

सुन्दरामियां एंड कम्पनी बनाम आँध्रप्रदेश राज्य, 1958,(एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- अनुच्छेद 20(1) सिविल दायित्व के सन्दर्भ में लागु नही होता है | अतः किसी सिविल दायित्व का भूतलक्षी सर्जन किया जा सकता है या उसमे वृधि की जा सकता है |

आन्ध्रप्रदेश सरकार बनाम सी.एच. गाँधी, 2013, (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- ऐसा नही है की कार्योत्तर विधियों का भूतलक्षी प्रभाव नही होगा, यदि कार्योत्तर विधियाँ सुधारात्मक है तो उनका प्रभाव भूतलक्षी भी हो सकता है |

एम.पी. शर्मा बनाम सतीश चन्द्र, 1954

अभिनिर्धारित :- एक ऐसा व्यक्ति जिसका नाम प्रथम सुचना रिपोर्ट में एक अभियुक्त की तरह वर्णित है वह भी अनुच्छेद 20 के तहत सुरक्षा का दावा कर सकता है | अर्थात अनुच्छेद 20 का लाभ कोई अभियुक्त भी ले सकता है |

दोहरे परिसंकट से संरक्षण {Article 20(2)}:

अनुच्छेद 20(2) के अनुसार, किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नही किया जायेगा |

अनुच्छेद 20(2) पर आधारित केस लॉ:-

अनुच्छेद 20(2) पर आधारित केस लॉ
अनुच्छेद 20(2) पर आधारित केस लॉ

मध्य प्रदेश राज्य बनाम वीरेश्वर, 1957 (एस. सी.)

अभिनिर्धारित:- अपील कोई नवीन कार्यवाही नही है | यह केवल मूल कार्यवाही का ही जारी रहना है | अतः अपीलीय तथा पुनरीक्षण कार्यवाही के विरुद्ध अनुच्छेद 20(2) के संरक्षण का दावा नही किया जा सकता है |

मकबूल हुसैन बनाम बोम्बे राज्य, 1953 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- कस्टम अधिकारीयों को न्यायलय की प्रास्थिति प्राप्त नही है | उनकी जब्त करने की कार्यवाही ना तो अभियोजन है और न ही दण्डित किया जाना | अतः वह अनुच्छेद 20(2) के संरक्षण का दावा नही कर सकता है |

सुवा सिंह बनाम देविंदर कौर, 2011 (एस. सी.)

अभिनिर्धारित :- क्षतिपूर्ति की डिक्री अनुच्छेद 20(2) के अर्थो में दंड नही है | अतः अभियोजित एवंम दण्डित किये जाने वाला व्यक्ति अनुच्छेद 20(2) के संरक्षण का दावा नही कर सकता है | यदि उसे कृत्य हेतु क्षतिपूर्ति का संदाय करने हेतु आदेशित किया जाता है |

आत्म-अभिशंसन से संरक्षण {ARTICLE 20(3)}:-

Article 20(3) of Indian Constitution आत्म-अभिशंसन के विरुद्ध संरक्षण का उपबंध करता है की “किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नही किया जायेगा |”

अनुच्छेद 20(3) पर आधारित केस लॉ:-

अनुच्छेद 20(3) पर आधारित केस लॉ
अनुच्छेद 20(3) पर आधारित केस लॉ

एम. पी. शर्मा बनाम सतीश चन्द्र, 1954 (एस. सी.)

अभिनिर्धारित:- अनुच्छेद 20(3) उसी क्षण आकर्षित हो जाता है जब कोई व्यक्ति प्रथम सुचना रिपोर्ट (F.I.R.) में नामित किया जाता है तथा मजिस्ट्रेट द्वारा अन्वेषण आदेशित किया जाता है |

दिल्ली न्यायिक सेवा संघ बनाम गुजरात राज्य, 1991 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- अवमानना की कार्यवाही आपराधिक कार्यवाही नही होती है अभिकथित अवमानना के दोषी व्यक्ति को दण्डित किया जा सकता है परन्तु वह अभियुक्त नही है क्योंकि न्यायालय द्वारा उसे क्षमादान दिया जा सकता है यदि वह बिना शर्त क्षमादान मांगता है |

युसूफ अली बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1968 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित:- बिना किसी दवाव या प्रताड़ना के अभियुक्त द्वारा किया गया कथन अनुच्छेद 20(3) से वर्जित नही होगा |

नंदिनी सतपथी बनाम पी. एल. धानी, 1978 (एस. सी.)

अभिनिर्धारित :- दोषी होने के अनुमानों से युक्त प्रश्नों के सन्दर्भ में अभियुक्त मौन रह सकता है | धारा 161 दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन मौखिक परिक्षण के समय उसे अनुच्छेद 20(3) का संरक्षण प्राप्त होगा | 

बम्बई बनाम कठिकालू, 1961 (एस.  सी.) 

अभिनिर्धारित :- यह अभिनिर्धारित किया गया की साक्षी होना साक्ष्य देने के समान नही है इसके अंतर्गत मौखिक या लिखित कथन या दस्तावेज प्रस्तुत करना शमिल है | अतः जब कोई व्यक्ति ऊँगली चिन्हों या लेख या हस्ताक्षर के नमूने देता है तो वह साक्षी होना पदावली के अंतर्गत शामिल नही है |

सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य, 2010 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- अभियुक्त को अस्वैच्छिक रूप से नार्को परिक्षण, पोलीग्राफ या मस्तिष्क परीक्षा के अधीन करना अभिसक्ष्य देने की विवशता गठित करेगा | अतः वह अनुच्छेद 20(3) द्वारा वर्जित है |

फ्रांसिस कोरोली बनाम केंद्रशासित दिल्ली, 1981 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की जीने का अधिकार केवल पशुओं की तरह अस्तित्व तक ही सीमित नही होता है | जीने का अधिकार केवल शारीरिक अस्तित्व से कुछ अधिक है |

अमृत सिंह बनाम पंजाब राज्य, 2007(एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- इस मामले में उच्चतम न्यायलय ने यह अभिनिर्धारित किया की अपराधी को अपनी पहचान के लिए अपने बाल के नमूने को न देने का अधिकार है, वह स्वयं की इच्छा है की वह दे या न दे | उसे अनुच्छेद 20(3) के अधीन अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नही किया जा सकता है |

राज्य बनाम कृष्ण मोहन, 2008 (एस.सी.)

अभिनिर्धारित :- उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की किसी अपराध के अभियुक्त व्यक्ति के अंगूठे के निशान या उसका हस्ताक्षर लेना अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन नही है | उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नही किया जा सकता है |

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Article 25-28 Constitution of India
Article 20 of Indian Constitution
अधिक जानकारी के लिए :
https://en.wikipedia.org/wiki/Constitution_of_India
                 
https://www.constitutionofindia.net/read/
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