CIVIL PROCEDURE CODE : Simplified डिक्री क्या होती है ? आवश्यक तत्व और प्रकार {SEC 2(2)}

CIVIL PROCEDURE CODE के अंतर्गत डिक्री से सम्बंधित पूरी जानकारी न्यायिक परीक्षाओं को ध्यान में रखते हुए | डिक्री का अर्थ, उसके आवश्यक तत्व तथा उसके प्रकार से सम्बंधित पूरी जानकारी |

डिक्री {SEC 2(2) CIVIL PROCEDURE CODE} 

“डिक्री से ऐसे न्यायनिर्णयन की प्रारूपिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत है जो, जहाँ तक की उसे करने वाले न्यायालय से सम्बंधित है, वाद में के सभी या किन्ही विवादग्रस्त विषयों के सम्बन्ध है, वाद में के सभी या किन्ही विवादग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों को निश्चायक रूप से अवधारण करता है और वह या तो प्रारम्भिक या अंतिम हो सकेगी |

यह समझा जायेगा की इसके अंतर्गत :-
(a)  वादपत्र का नामंजूर किया जाना और {आदेश 7 नियम 11}
(b)  धारा 144 के भीतर किसी प्रश्न का अवधारण आता है

किन्तु इसके अंतर्गत :-
(i)  न तो कोई ऐसा न्यायनिर्णयन आएगा जिसकी अपील, आदेश की अपील के भांति होती है,                  और {आदेश 4 नियम 1 CIVIL PROCEDURE CODE}
(ii) न व्यतिक्रम के लिए कोई ख़ारिज करने का आदेश आएगा | {आदेश 9 नियम 2,3,5,8 CIVIL PROCEDURE CODE}

डिक्री के आवश्यक तत्व  :-

1) कोई न्यायनिर्णयन होना चाहिये ;

2)  ऐसा न्यायनिर्णयन किसी वाद में किया होना चाहिये ;

3)  ऐसे न्यायनिर्णयन द्वारा विवादग्रस्त विषय के सम्बन्ध में पक्षकारो  के सभी या किन्ही अधिकारों का अवधारण किया होना चाहिये ;

4)  ऐसा अवधारण निश्चायक प्रकृति का होना चाहिये ;

5)  ऐसे न्यायनिर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति की गई होनी चाहिये |

6)  डिक्री प्रारम्भिक या अंतिम या अंशतः प्रारम्भिक और अंशतः अंतिम हो सकती है |

7)  निम्न को डिक्री में शामिल समझा जा सकता है :-

    (a) वादपत्र का नामंजूर किया जाना;

    (b) धारा 144 सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किसी प्रश्न का अवधारण 

8) डिक्री में निम्न शामिल नही है :-

   (a) ऐसे न्यायनिर्णयन जिनकी अपील आदेश की अपील की भांति होती है ;

   (b) व्यतिक्रम के कारण खारीजों का आदेश |

CIVIL PROCEDURE CODE : Simplified डिक्री क्या होती है ? आवश्यक तत्व और प्रकार {SEC 2(2)}

यहाँ न्यायनिर्णयन  का तात्पर्य न्यायिक अवधारण से है | न्यायिक अवधारण वह है  जो निम्न शर्तों को पूर्ण करता  है :-

1) विधि के अनुसार अभिवचन | {आदेश 6 नियम 1 }

2) विधि के अनुसार सुनवाई |

3) न्यायिक मस्तिष्क का प्रयोग |

4) तथ्य एवंम परिस्थितियों पर विधि का प्रयोग |

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डिक्री के प्रकार :-

 सामान्य नियम यह है की एक ही वाद में केवल एक ही डिक्री पारित की जाती है परन्तु न्यायहित में आवयश्क होने पर एक ही वाद में एक से अधिक डिक्रीयां पारित की जा सकती है | {फूलचंद बनाम गोपाल लाल,1967 (एस.सी.)}
धारा 2(2) सिविल प्रक्रिया संहिता डिक्री के निम्न 3 प्रकारों का उल्लेख करती है :-

1. प्रारम्भिक डिक्री;

2. अंतिम डिक्री;

3. भागतः प्रारम्भिक एवंम भागतः अंतिम डिक्री |

अब हम इन तीनो ही डिक्री के बारे में विस्तारपूर्वक जानेंगे |

1. प्रारम्भिक डिक्री :-

जब कोई न्याय निर्णयन वाद में विवाद ग्रस्त विषयों के सम्बन्ध में पक्षकारो के सभी या किन्ही अधिकारों का अवधारण करता है परन्तु वाद का पूर्णरूपेण निस्तारण नही करता है तो उसे प्रारम्भिक डिक्री कहा जाता है |

 दुसरे शब्दों में डिक्री प्रारम्भिक होगी यदि वाद का पूर्णरूपेण निस्तारण करने से पूर्व कुछ और कार्यवाहियां की जानी शेष रह गई हो | 
संहिता निम्न वादों में प्रारम्भिक डिक्री पारित किये जाने का उपबंध करती है :-
a. कब्ज़ा एवंम अन्तः कालीन लाभ हेतु वाद {आदेश 20 नियम 12}

b. प्रशासन वाद {आदेश 20 नियम 13}

c. हकाशुफा वाद {आदेश 20 नियम 14}

d. भागीदारी के विघटन हेतु वाद {आदेश 20 नियम 15}

e. मालिक एवंम अभिकर्ता के बीच लेखा हेतु वाद {आदेश  20 नियम 16}

f. सम्पति विभाजन एवंम पृथक कब्जे हेतु {आदेश 20 नियम 18}

g. बंधक के पुरोबंध हेतु वाद {आदेश 34 नियम 2}

h. बंधक सम्पति के विक्रय हेतु वाद {आदेश 34 नियम 4}

i. बंधक के मोचन हेतु वाद {आदेश 34 नियम 7}

परन्तु उपरोक्त वर्णित वादों में न्यायालय प्रारम्भिक डिक्री पारित करने हेतु बाध्य नही है | इसके अतिरिक्त यह सूची सम्पूर्ण भी नही है |

अतः न्यायालय ऐसे वादों में भी प्रारम्भिक डिक्री पारित कर सकता है जिनका संहिता में स्पष्ट उल्लेख नहीं है|
अपील के प्रयोजनों हेतु प्रारम्भिक डिक्री उतनी ही अच्छी है जितनी की अंतिम डिक्री |

अतः प्रारम्भिक डिक्री से पीड़ित पक्षकार को यथाशीघ्र अपील करनी चाहिए | यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है तो धारा 97 का निषेध लागु होगा अर्थात वह अंतिम डिक्री के विरुद्ध की गई अपील में प्रारम्भिक डिक्री की शुद्धता को चुनौती नही दे सकेगा |


शीतल प्रसाद बनाम किशोरी लाल, 1967, (एस. सी.)
अभिनिर्धारित :- चूँकि प्रारम्भिक डिक्री का पारित किया जाना अंतिम डिक्री के पारित किये जाने से पूर्ववर्ती अवस्था है इसलिए यदि प्रारम्भिक डिक्री के विरुद्ध की गई अपील सफल हो जाती है तो अंतिम डिक्री स्वतःनिष्प्रभावी हो जाती है |


2. अंतिम डिक्री:- 


  डिक्री तब अंतिम हो जाती है जब किसी न्यायालय का न्यायनिर्णयन वाद का पूर्णरूपेण निस्तारण कर देता है और पक्षकारो के मध्य विवादग्रस्त सभी प्रश्नों का अंतिम रूप से निपटारा कर देता है और उसके बाद अवधारण करने हेतु कुछ शेष नही रहता है |

शंकर बनाम चंदकांत, 1995,(एस.सी.)


अभिनिर्धारित :- सामान्य नियम यह है की एक वाद में केवल एक अंतिम डिक्री पारित की जाती है परन्तु विशेष परिस्थितियों के अधीन एक ही वाद में एक से अधिक अंतिम डिक्री पारित की जा सकती है जैसे की जब एक ही वाद में 2 या 2 से अधिक वाद हेतुक का संयोजन किया गया हो |               

डिक्री तब अंतिम हो जाती है जब वह सक्षम न्यायलय द्वारा पारित की गई हो एवंम उसके विरुद्ध कोई अपील संस्थित नही की हो |  डिक्री  तब अंतिम हो जाती है जब :-

a. उसके विरुद्ध अपील करने के लिए विहित मर्यादा अवधि का अवसान अपील किये बिना हो गया हो या उस विषय का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय की डिक्री द्वारा हो गया हो; और 
b. डिक्री जहाँ तक की उसे पारित करने वाले न्यायालय का सम्बन्ध है वाद का पूर्ण रूपेण निपटारा कर देती हो |


3. अंशतः प्रारम्भिक एवंम अंशतः अंतिम डिक्री :-


डिक्री अंशतः प्रारम्भिक एवंम अंशतः अंतिम हो सकती है | ऐसी डिक्री तब पारित की जाती है जब न्यायालय ने एक ही डिक्री के माध्यम से 2 प्रश्नों का अवधारण किया हो |

द्रष्टान्त:-

यदि सम्पति के कब्जे और अन्तःकालीन लाभ हेतु वाद संस्थित किया गया हो और न्यायालय ने सम्पति के कब्जे हेतु डिक्री पारित करते हुए अन्तः कालीन लाभ के सम्बन्ध में जाँच निर्देशित की हो तो डिक्री का पूर्ववर्ती भाग अंतिम होगा और पश्चातवर्ती भाग मात्र प्रारम्भिक डिक्री होगा क्योंकि अन्तः कालीन लाभ हेतु अंतिम डिक्री तभी पारित की जा सकती है जब अन्तः कालीन लाभ की धनराशी का विनिश्चय जाँच के पश्चात् कर लिया जाए |


अब हम एक ऐसी डिक्री के बारे में जानेंगें जो की सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2(2) की आवश्यक शर्ते तो पूरी नही करती है लेकिन फिर भी उसे सिविल प्रक्रिया संहिता में डिक्री माना गया है |

प्रारम्भिक डिक्री और अंतिम डिक्री में अंतर :-

प्रारम्भिक डिक्रीअंतिम डिक्री
वाद के जारी रहने के दौरान पारित की जाती है तथा यह वाद का पूर्ण रूपेण निपटारा नही करती है अर्थात वाद का पूर्ण रूपेण निपटारा किये जाने से पूर्व कुछ और कार्यवाहियां की जानी शेष रह जाती है |वाद का पूर्ण रूपेण निपटारा कर देती है और उसके पश्चात् आगे कोई भी कार्यवाही की जानी शेष नही रह जाती है |
इससे यह पता चलता है की वाद में आगे क्या
किया जाना है |
यह प्रारम्भिक डिक्री के माध्यम से प्राप्त परिणाम को प्रकट करती है |
एक वाद में एक से अधिक प्रारम्भिक डिक्री पारित की जाती है |सामान्यतः एक वाद में केवल एक ही अंतिम डिक्री पारित की जाती है |
यह अंतिम डिक्री पर निर्भर नही रहती है |यह प्रारम्भिक डिक्री पर निर्भर रहती है तथा उसके अधीनस्थ होती है |

डीम्ड डिक्री:-


डीम्ड डिक्री एक ऐसा न्याय निर्णयन है जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2(2) के आवश्यक तत्वों तो पुरे नही करता है परन्तु विधिक कल्पना द्वारा डिक्री माना जाता है जैसे की वादपत्र को नामंजूर करने का आदेश या सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अंतर्गत किसी प्रश्न का अवधारण सम्बन्धी आदेश |

इसी प्रकार आदेश 21 नियम 58, आदेश 21 नियम 98 या आदेश 21 नियम 100 के अंतर्गत न्याय निर्णयन को भी डीम्ड डिक्री माना जाता है |

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