मेहर से तात्पर्य उस धनराशी या ऐसी सम्पति से है जिसे पत्नी विवाह के प्रतिफल स्वरूप अपने पति से प्राप्त करने की हक़दार है | कभी कभी मेहर को विवाह संविदा हेतु प्रतिफल समझा जाता है परन्तु वास्तविक अर्थ में यह प्रतिफल नही है क्योंकि प्रतिफल के बिना संविदा शून्य होती है जबकि विवाह के समय मेहर को नियत न किये जाने पर भी विवाह शून्य नही होता है | ऐसी दशा में पत्नी अपने पति से उचित मेहर प्राप्त करने की हक़दार होती है |
हदाया के अनुसार मेहर के संदाय को पत्नी के प्रति सम्मान के प्रतिक के रुप में विधि द्वारा अधिरोपित किया गया है |
हमीदा बीबी बनाम जुबेदा बीबी, 1916 (प्रीवी काउंसिल)
अभिनिर्धारित :- मेहर मुस्लिम विवाह की आवश्यक प्रसंगति है यह उस विस्तार तक आवश्यक है की यदि उसे विवाह के समय नियत न भी किया गया हो तो भी विधि के सिद्धांतों के अनुसार उसे बाद में नियत किया जा सकता है |
मेहर का महत्त्व:-
1. यह पति की तलाक देने के अनिर्बंधित अधिकार पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण के रूप में कार्य करता है |
2. यह विवाह विच्छेद के पश्चात पत्नी को असहाय हो जाने से संरक्षित रखता है |
मेहर की विषय वस्तु:-
कोई भी विद्यमान सम्पति, मूल्यवान वस्तु या धनराशी मेहर की विषय वस्तु हो सकती है |
सम्पति शब्द में चल या अचल, मूर्त या अमूर्त सम्पति शामिल है | चल या अचल सम्पति से उद्भूत लाभ या किसी व्यापार का कोई लाभ या जीवन बिमा पालिसी या कुरान का उच्चारण भी अच्छा मेहर हो सकता है |
पति द्वारा अपनी पत्नी को दी गई व्यैक्तिक सेवा भी अच्छा मेहर हो सकता है (केवल सिया विधि के अधीन ) |
ऐसी सम्पति जो अस्तित्व में नहीं है या जो युक्तियुक्तः निश्चित नही की जा सकती है मेहर की विषय वस्तु नही हो सकती है | इसके अतिरिक्त गैर मुस्लिम वस्तु भी मेहर की विषय वस्तु नही हो सकती है |
मेहर की राशी:-
सुन्नी विधि के अनुसार निश्चित मेहर की न्यूनतम राशी 10 दिहरम है | इसकी अधिकतम सीमा कुछ भी हो सकती है |
शिया विधि के अनुसार निश्चित मेहर की न्यूनतम राशी कुछ भी नही है | इसकी अधिकतम राशी 500 दिहरम है |
मेहर के अधिकार की प्रकृति :-
मेहर के अधिकार की प्रकृति को निम्न दो बिन्दुओं के सन्दर्भ में समझा जा सकता है :-
1. मेहर का अधिकार एक बार निहित हो जाने के पश्चात् कभी भी अनिहित नही होता है :-
विवाह के पूर्ण हो जाने के पश्चात मेहर का अधिकार तत्काल रूप से पत्नी में निहित हो जाता है | उसका दोषपूर्ण पश्चातवर्ती आचरण भी उसे उस अधिकार से वंचित नही करता है | दुसरे शब्दों में निम्न आधारों पर भी वह मेहर के अधिकारों से वंचित नही होती है :-
a. यदि वह इस्लाम का परित्याग कर दे;
b. यदि वह जारकर्म करती है;
c. यदि वह अपने पति की हत्या कर दे |
2. असंदत मेहर एक प्रत्याभूत ऋण है :-
असंदत मेहर पत्नी का अपने पति के विरुद्ध एक अनुयोज्य दावा है | अपने असंदत्त मेहर के सन्दर्भ में वह अपने पति की लेनदार समझी जाती है |
कपूर चन्द्र बनाम कादर उन्नीसा, 1950, (एस.सी.)
अभिनिर्धारित :- असंदत मेहर किसी अन्य सामान्य अप्रत्याभुत ऋण के समान है अतः पत्नी यह दावा नही कर सकती है की उसका मेहर का अधिकार पति के अन्य लेनदार के दावे से श्रेष्ठ है |
मेहर की राशी में वृद्धि की जा सकती है :-
अब दोस्तों प्रशन यह है की क्या एक बार निश्चित की गई मेहर की रकम को बढाया जा सकता है तो दोस्तों विवाह के समय निश्चित की गई मेहर की राशी में वृद्धि करने हेतु पति एवंम पत्नी विधि पूर्वक संविदा कर सकते है |
मेहर के प्रकार:-
दोस्तों मेहर के 2 प्रकार होते है जो की निम्नवत है :-
1. मेहर-ए-मुसम्मा (निश्चित मेहर)
2. मेहर-ए-मिस्ल (अनिश्चित मेहर)
मेहर-ए-मुसम्मा:-
यह विवाह से पूर्व या विवाह के समय या विवाह के पश्चात् किसी भी समय अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से निश्चित किया गया मेहर है | अवयस्क या चित्तविक्रती की दशा में इसे संरक्षक द्वारा नियत किया जा सकता है | यह तात्कालिक या स्थगित हो सकती है |
दोस्तों इसको पढ़कर यह समझ आता है की मेहर-ए-मुसम्मा तात्कालिक भी हो सकता है और स्थगित भी तो इस आधार पर हम मेहर-ए-मुसम्मा को दो भागो में बाँट सकते है और इसका अध्ययन आसान कर सकते है | मेहर-ए-मुसम्मा के प्रकार निम्नवत है :-
A. मुअज्जल मेहर (तात्कालिक मेहर) :-
विवाह के पूर्ण हो जाने के पश्चात् किसी भी समय या तो तत्काल या कुछ समय पश्चात् पत्नी द्वारा इसकी मांग की जा सकती है | मांग किये जाने पर तत्काल इसका संदाय किया जाना चाहिए | विलम्ब की दशा में पत्नी उस पर ब्याज भी लगा सकती है |
यदि विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त नही हुआ हो तो वह तात्कालिक मेहर का संदाय हो जाने तक पति के साथ समागम करने से इंकार कर सकती है | ऐसी दशा में पति दाम्पत्य अधिकारों के पुनः स्थापना हेतु डिक्री का हक़दार नही होगा |
B. मुवज्ज्ल मेहर (स्थगित मेहर)
यह पति की मृत्यु या तलाक़ द्वारा विवाह विघटन होने पर या किसी विनिर्दिष्ट घटना के घटित होने पर संदाये होता है | यदि विवाह के विघटन से पूर्व स्थगित मेहर के संदाय के बारे में पति पत्नी के मध्य कोई करार हुआ हो तो ऐसा करार वैध एवंम आबद्धकर होता है |
मेहर तात्कालिक होगा या स्थगित, इसका अवधारण पक्षकारो या संरक्षक द्वारा उसको नियत किये जाते समय ही किया जाता है | यदि उनके द्वारा ऐसा कुछ निश्चित ना किया गया हो तो सम्पूर्ण मेहर को तात्कालिक मेहर समझा जाता है |
मेहर-ए-मिस्ल (अनिश्चित मेहर):-
इसे उचित या रूढ़िगत मेहर भी कहा जाता है | जब विवाह के पक्षकारो द्वारा मेहर की राशी को नियत न किया गया हो तो रूढ़ियों, प्रथाओं आदि के आधार पर कोर्ट द्वारा उसे नियत किया जा सकता है | मेहर की राशी को नियत करते समय न्यायालय निम्न को विचार में लेता है :-
a. पत्नी की निजी अहर्ताएं जैसे :- उसका सौन्दर्य, समझदारी एवंम सदाचार;
b. पत्नी के पिता की सामाजिक स्थिति;
c. पत्नी के पिता के परिवार में अन्य स्त्रियों को दिए गये मेहर की राशी के उदहारण;
d. पति की आर्थिक स्थिति;
e. अन्य तात्कालिक परिस्थितियां |
मेहर के अधिकार को प्रवर्तित कराए जाने हेतु उपचार :-
दोस्तों एक मुस्लिम स्त्री के पास अपने मेहर के अधिकार को प्रवर्तित करने हेतु निम्न उपचार प्राप्त होते है :-
1. समागम से इंकार;
2. ऋण की भांति मेहर को वसूलने का अधिकार ;
3. पति की सम्पति पर काबिज रहने का अधिकार |
1.समागम से इंकार:-
यदि विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त नही हुआ हो और मांग किये जाने के बावजूद तात्कालिक मेहर असंदत्त रहे तो पत्नी पति के साथ समागम से इंकार कर सकती है | ऐसी दशा में पति दाम्पत्य अधिकारों के पुनःस्थापन की डिक्री का हक़दार नही होगा |
यदि पत्नी अवयस्क हो तो संरक्षक उसे अपनी संरक्षकता एवंम अभिरक्षा में ले सकता है | यदि वह पहले से संरक्षक के पास हो तो संरक्षक उसे पति के पास भेजने से इंकार कर सकता है |
अनीस बेगम बनाम मोहम्मद वली खान,1933, इलाहाबाद
अभिनिर्धारित :- यदि वैवाहिक समागम एक बार भी हो गया तो पत्नी पति के साथ समागम से इंकार करने के अधिकार को खो देती है | ऐसी दशा में पति दाम्पत्य अधिकारों के पुनःस्थापन की डिक्री का हक़दार हो जाता है परन्तु न्यायालय ऐसी डिक्री में मेहर के संदाय की शर्त अधिरोपित कर सकता है |
2. ऋण की भांति मेहर को वसूलने का अधिकार :-
असंदत्त मेहर एक अनुयोज्य दावा है अतः पत्नी अपने पति के विरुद्ध वाद संस्थित करके मेहर को ऋण की भांति वसूल सकती है |
पति की म्रत्यु के पश्चात् वह मृतक पति के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वह ऐसा वाद संस्थित कर सकती है | उत्तराधिकारियों का दायित्व उत्तराधिकार में उनके द्वारा प्राप्त अंश के विस्तार तक सिमित होता है |
3. पति की सम्पति पर काबिज रहने का अधिकार
यदि पत्नी ने अपने असंदत्त मेहर के एवज में अपने मृतक पति की सम्पूर्ण सम्पति या उसके किसी भाग का वास्तविक कब्ज़ा विधिपूर्वक और बल या कपट के बिना अभिप्राप्त कर लिया हो तो वह अपने मेहर ऋण की तुष्टि हो जाने तक पति के लेनदारो और अन्य उत्तराधिकारियों के विरुद्ध सम्पदा पर कब्जे को बनाये रखने की अधिकारी होगी |
विधवा के सम्पदा पर काबिज रहने के अधिकार की विशेषताएं :-
विधवा के सम्पदा पर काबिज रहने के अधिकार की निम्नलिखित विशेषताएं है :-
a. इस अधिकार के विधिपूर्ण प्रयोग हेतु यह आवश्यक है की पति की सम्पदा का कब्ज़ा केवल असंदत्त मेहर के एवज में प्राप्त किया हो | यदि उसने सम्पदा का कब्ज़ा किसी अन्य कारणवश प्राप्त किया हो तो वह इस अधिकार का प्रयोग करने की हक़दार नही होगी|
b. यह भी आवश्यक है की उसने पति के जीवनकाल में ही कब्ज़ा प्राप्त किया हो |
c. यह भी आवश्यक है की पत्नी ने पति की सहमती से उस सम्पति पर कब्ज़ा प्राप्त किया हो | पति की सम्मति अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है परन्तु उसे स्वतंत्र सम्मति होना चाहिए |
d. वह अपने असंदत्त मेहर की तुष्टि के लिए ऐसी सम्पति से उद्भव होने वाली आय या लाभ की हक़दार होती है |
e. यह केवल एक कब्ज़ा विषयक अधिकार है | अतः इस अधिकार से पत्नी को कब्जाधीन सम्पति पर कोई स्वत्व प्राप्त नही होता है | वह सम्पति को अंतरित नही कर सकती है | यदि वह सम्पति को अंतरित करती है तो ऐसा अंतरण शून्य होगा | कब्जे का अंतरण करने के पश्चात् वह अंतरित सम्पति का पुनः कब्ज़ा प्राप्त करने की हक़दार नही रह जाती है | {मैना बीबी बनाम चौधरी वकिल अहमद 1925, प्री वी कौंसिल}
f. उसका समाप्ति पर काबिज रहने का अधिकार अंतरणीय नही है |
उसका सम्पति पर काबिज रहने का अधिकार दाय (उत्तराधिकार) योग्य है | अतः उसके मेहर ऋण की तुष्टि हो जाने तक उसके विधिक उत्तराधिकारी सम्पति पर कब्ज़ा बनाये रखने के हकदार होंगे |