“CRPC Section 300 Decoded: Essential Information for Legal Professionals in Hindi”

Sec 300 of CRPC यह उपबंधित करती है की जिस व्यक्ति की किसी अपराध के लिए एक बार दोषसिद्धि या दोषमुक्ति हो चुकी है उसका उसी अपराध के लिए पुनः विचरण नही किया जा सकता है | किन्तु इस सामान्य नियम के कुछ अपवाद है जो की हम जानेंगें |{crpc in hindi}

पूर्व दोषसिद्धि या पूर्व दोषमुक्ति का सिद्धांत :- धारा 300(1)

धारा 300(1), पूर्व दोषसिद्धि या पूर्व दोषमुक्ति के सिद्धांत का उपबंध करती है। इस सिद्धांत के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का किसी अपराध के लिए सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय द्वारा एक बार विचारण किया जा चुका है तथा उसे ऐसे अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किया जा चुका है तो जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त रहती है तब तक वह ना तो उसी अपराध के लिए पुनः विचारण का भागी होगा और न ही उन्हीं तथ्यों पर किसी ऐसे अन्य अपराध के लिए विचारण का भागी होगा, जिसके लिए उस पर धारा 221(1) के अधीन आरोप लगाया जा सकता था या जिसके लिए वह धारा 221(2) के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता है।

"CRPC Section 300 Decoded: Essential Information for Legal Professionals in Hindi"

अभियुक्त का उन्मोचन या उसके विरूद्ध परिवाद खारिज किए जाने को उसकी दोषमुक्ति नहीं माना जा सकता है। अतः यदि अभियुक्त को उन्मोचित किया गया है या परिवाद खारिज किया गया है तो उसका उन्हीं तथ्यों के आधार पर विचारण किया जाना धारा 300 के अंतर्गत बाधित नहीं होगा। धारा 300 का स्पष्टीकरण

नोट – धारा 221 – जहॉ इस बारे में संदेह है कि कौन सा अपराध किया गया है।

दृष्टांत-

A का विचारण सेवक की हैसियत में चोरी करने के आरोप पर किया जाता है और वह दोषमुक्त कर दिया जाता है। जब तक ऐसी दोषमुक्ति प्रवृत्त रहे, उस पर सेवक के रूप में चोरी के लिए या उन्हीं तथ्यों पर केवल चोरी के लिए या आपराधिक न्यासभंग के लिए बाद में आरोप नहीं लगाया जा सकता है।

पूर्व दोषसिद्धि या पूर्व दोषमुक्ति के सिद्धांत के अपवाद :- धारा 300(2)से crpc धारा 300(6) तक

धारा 300(1) में उपबंधित पूर्व दोषसिद्धि या पूर्व दोषमुक्ति के सिद्धांत के अपवादों का उल्लेख धारा 300(2) से धारा 300(6) तक में किया गया है। अपवाद निम्नवत् हैं-

1. किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध या दोषमुक्त किए गए किसी व्यक्ति का पुनः विचारण किसी ऐसे भिन्न अपराध के लिए किया जा सकता है जिसके लिए पूर्वगामी विचारण में उसके विरूद्ध धारा 220(1) के अधीन आरोप लगाया जा सकता था किंतु लगाया नहीं गया। परंतु ऐसे पुनः विचारण के लिए राज्य सरकार की सम्मति आवश्यक होगी। {धारा 300(2)}

दृष्टांत-

A दिन में गृह भेदन इस आशय से करता है कि B की पत्नी के साथ जारकर्म करे। B गृह भेदन करता है और A की पत्नी के साथ जारकर्म भी करता है। प्रथम विचारण में B के विरूद्ध सिर्फ धारा 454 भा0द0सं0 का आरोप लगाया जाता है और वह दोषसिद्ध हो जाता है।

इस स्थिति में धारा 220(1) के अधीन उसी विचारण में धारा 497 भा0द0सं0 का भी पृथक आरोप लगाया जा सकता था परंतु नहीं लगाया। अब B के विरूद्ध धारा 497 का अभियोग लगाया तो जा सकता है किंतु अभियोग लगाने हेतु A को राज्य सरकार की सम्मति प्राप्त करनी होगी।
नोट:- धारा 220 त्रझ एक से अधिक अपराधों के लिए विचारण-

जब एक ही संव्यवहार में एक ही व्यक्ति द्वारा एक से अधिक अपराध किए गए है तो उन सभी अपराधों का एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और एक ही विचारण किया जा सकता है।

2. जबकि कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य से बनने वाले किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध किया गया है जो ऐसे परिणाम पैदा करता है जो उस कार्य से मिलकर भिन्न अपराध गठित करते हैं, जिसके लिए वह दोषसिद्ध किया जा चुका है, तो उसका ऐसे अंतिम वर्णित अपराध के लिए पुनः विचारण किया जा सकता है। यदि उस समय जब वह दोषसिद्ध किया गया था वे परिणाम गठित नहीं हुए थे या उनका होना न्यायालय को ज्ञात नहीं था जिनके कारण एक भिन्न अपराध गठित हुआ था। {धारा 300(3)}

दृष्टांत-

घोर उपहति कारित करने के लिए A का विचारण किया जाता है और वह दोषसिद्ध किया जाता है। पीड़ित व्यक्ति तत्पश्चात् मर जाता है। आपराधिक मानववध के लिए A का पुनः विचारण किया जा सकेगा।

A पर सेशन न्यायालय के समक्ष यह आरोप लगाया जाता है कि उसने B का आपराधिक मानववध किया है और A दोषसिद्ध किया जाता है। B की हत्या के लिए A का उन्हीं तथ्यों पर तत्पश्चात् विचारण नहीं किया जा सकेगा |

A पर प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में यह आरोप लगाया जाता है कि उसने B को स्वेच्छा से उपहति कारित की है A दोषसिद्ध किया जाता है। अब A का उन्हीं तथ्यों पर B को स्वेच्छा से घोर उपहति कारित का पुनः विचारण तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक धारा 300(3) की शर्तें पूरी न हो।

3. किसी व्यक्ति को किन्हीं कार्याें से बनने वाले किसी अपराध के लिए दोषमुक्त या दोषसिद्ध किए जाने के बाद भी उन्हीं कार्यों से बनने वाले और उसके द्वारा किसी अन्य अपराध के लिए पुनः आरोप लगाया जा सकेगा और उसका विचारण किया जा सकेगा। यदि प्रथम विचारण करने वाला न्यायालय उस अपराध के विचारण के लिए सक्षम नहीं है जिसके लिए बाद में उस पर आरोप लगाया गया है। {धारा 300(4)}

दृष्टांत-

A पर द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि उसने B के शरीर से सम्पत्ति चुराई है। A पर लूट का आरोप लगाया जा सकेगा और उसका विचारण किया जा सकेगा।

A,B, और C पर प्रथम वर्ग मजिस्टेªट द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि इन्होने D को लूटा है। ।A, B और C दोषसिद्ध किए जाते हैं। उन्हीं तथ्यों पर बाद में A,B और C पर डकैती का आरोप लगाया जा सकेगा और उनका विचारण किया जा सकेगा।

3. संहिता की धारा 258 के अधीन उन्मोचित किए गए किसी व्यक्ति का उसी अपराध के लिए पुनः विचारण ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकेगा जिसके द्वारा वह उन्मोचित किया गया था या ऐसे दण्ड न्यायालय की सहमति से किया जा सकेगा जिससे उन्मोचित करने वाला न्यायालय अधीनस्थ है। {धारा 300(5)}

नोट :- धारा 258 :- कुछ मामलों में कार्यवाही को रोक देने की शक्ति।

4. धारा 300(1) की कोई बात साधारण उपखण्ड अधिनियम, 1897 की धारा 26 या इस संहिता की धारा 188 पर कोई प्रभाव नहीं डालेगी। धारा 300(6)

नोट :- साधारण उपखण्ड अधिनियम की धारा 26 :-

जब अपराध दो या अधिक अधिनियमों के अधीन दण्डनीय हो तब प्रक्रिया :-

यह धारा उपबंध करती है कि जहॉ कोई कार्य या लोप दो या अधिक अधिनियमों के अधीन दण्डनीय है वहॉ अपराधी किसी एक या उन दोनों अधिनियमों में से किसी के भी अंतर्गत अभियोजित और दण्डित किया जा सकेगा परन्तु उसी अपराध के लिए दो बार दण्डित नहीं किया जा सकेगा।

धारा 188 CRPC :- भारत से बाहर किया गया अपराध ।

दोहरे दण्ड से संरक्षण :- अनुच्छेद 20(2)

अनुच्छेद 20(2) यह उपबंधित करता है कि कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित या दण्डित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 20(2) के अंतर्गत यह आवश्यक है कि अभियुक्त के विरूद्ध एक अपराध के लिए केवल अभियोग ही न लगाया गया हो बल्कि उसे दण्डित भी किया गया हो तथा दूसरा अभियोग उन्हीं तथ्यों पर आधारित हो। यदि प्रथम अभियोग के फलस्वरूप अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया हो तो उन्हीं तथ्यों पर दूसरा अभियोग वर्जित नहीं होगा।

स्टेट ऑफ़ तमिलनाडु बनाम नलिनी, 1999, सुप्रीम कोर्ट (राजीव गाँधी केस)

अभिनिर्धारित :- अनुच्छेद 20(2) का संरक्षण धारा 300 द0प्र0सं0 द्वारा प्रदत्त संरक्षण की अपेक्षा संकुचित है। अनुच्छेद 20(2) पूर्व दोषसिद्धि का उपबंध करता है जबकि धारा 300 द0प्र0सं0 पूर्व दोषसिद्धि तथा पूर्व दोषसिद्धि दोनों का उपबंध करती है।

पदावली ’जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति लागू रहती है’ का अर्थ :-

पदावली ’जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त रहती है’ का अर्थ है कि जब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति को अपील या पुनरीक्षण न्यायालय द्वारा अपास्त नहीं किया जाता है तब तक ऐसी दोषसिद्धि या दोषमुक्ति प्रवृत्त मानी जाएगी।

यदि पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति अपास्त कर दी जाती है तो अभियुक्त का पुनः विचारण किया जा सकता है क्योंकि उस अपास्त के आदेश द्वारा अभियुक्त का पूर्व विचारण रद्द कर दिया गया है।

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